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Nuclear Deterrence Policy Gathering Steam in India – Hindi

भारत में परमाणु निवारण नीति पर चर्चा गरमा रही है

सुधा रामचंद्रन द्वारा

बैंगलोर (आईडीएन) – भारतीय सुरक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (आईडीएसए) के विशिष्ट सदस्य, ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल के अनुसार, “यद्यपि भारत परमाणु शक्ति का प्रयोग करने के विरुद्ध है, आने वाले कुछ दशकों तक भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी कूटनीति में परमाणु निवारण एक अहम भूमिका निभाता रहेगा।“

अपनी नई प्रकाशित पुस्तक ‘शार्पेनिंग द आर्सेनल: इंडियाज़ इवोल्विंग न्यूक्लीअर डिटेरेन्स पोलिसी’ में, वे इसका कारण समझाते हैं: “केवल तब जबकि भारत के शत्रु इस बात के प्रति पूर्ण आश्वस्त होंगे की भारत के पास किसी परमाणु हमले के होने की स्तिथि में ऐसी कठोर जवाबी कार्यवाही करने के लिए आवश्यक राजनीतिक एवं सैन्य ईच्छाशक्ति के साथ-साथ यांत्रिक आधार भी मौजूद है जिसके कारण मानव जीवन की अस्वीकार्य हानि तथा अभूतपूर्व भौतिक संपदा का नुकसान होगा, उन्हें परमाणु हमला करने से डर लगेगा।“

इस अवधारणा की पृष्ठभूमि के विरुद्ध 18 जनवरी को भारत की अग्नि-V ने एक सफल प्रायोगिक-उड़ान भरी, जोकि परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम, लंबी दूरी तक मार करने वाली, एक अंतरमहाद्वीपीय बेलिस्टिक मिसाईल (आईसीबीएम) है।

भारत के रक्षा मंत्रालय (एमओडी) ने एक वक्तव्य ज़ारी करते हुए कहा कि, “यह इस मिसाइल का पाँचवा और एक रोड मोबाइल लॉन्चर पर स्तिथ कैनिस्टर से लगातार तीसरा परीक्षण था। सभी पाँच परीक्षण सफल रहे हैं,” साथ ही यह भी जोड़ा कि, इससे भारत की परमाणु निवारण के प्रति प्रतिबद्धता और अधिक सुनिश्चित होती है।

जहाँ कम दूरी की अग्नि-I और II को पाकिस्तान को ध्यान में रखकर विकसित किया गया था, वहीं अग्नि-V से अपेक्षित है की वह “चीन को भारत के विरुद्ध परमाणु हमला करने से बचने के लिए मजबूर करेगी, जोकि अत्यधिक-आवश्यक था।“ अग्नि-V की मारक क्षमता 5,000 किलोमीटर से अधिक है और यह चीन के लगभग सभी हिस्सों को परमाणु हमले का निशाना बना सकती है।

इसे लगातार प्राप्त होने वाली सफलता से पता लगता है की शीघ्र ही अग्नि-5 भारतीय सेना की कूटनीतिक शक्ति का हिस्सा बन जायेगी।

रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने आईडीएन को बताया कि, “यह अपनी परमाणु मिसाइल क्षमता को आधुनिक बनाने के प्रयास में भारत का एक और कदम होगा,” इसके साथ उन्होंने यह भी बताया कि, “भारत ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के मूल-सिद्धांत के तौर पर परमाणु निवारण में अपनी आस्था को पुनः बल प्रदान किया है”।

वैश्विक परमाणु निशस्त्रीकरण के प्रति भारत की दशकों पुरानी ऐसी प्रतिबद्धता 1945 से बरकरार है। जब अमेरिका ने 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराये तब महात्मा गांधी ने इसे “विज्ञान का सबसे अधिक राक्षसी उपयोग” कहकर इसकी निंदा की थी। परमाणु हथियारों से मुक्त दुनिया के प्रति भारत की प्रतिबद्धता परमाणु हथियारों को अनैतिक मानने की अवधारणा से प्रभावित थी।

चार विस्तृत चरणों से होकर गुजरने वाली भारत की निशस्त्रीकरण नीति के क्रमिक विकास पर प्रकाश डालते हुए, ब्रिटिश कोलंबिआ विश्वविद्यालय में लिउ इंस्टिट्यूट फॉर ग्लोबल इशूज़ में निशस्त्रीकरण, वैश्विक एवं मानव सुरक्षा विभाग के अध्यक्ष और “द पॉवर ऑफ़ प्रॉमिस: इग्ज़ैमिनिंग न्यूक्लिअर एनर्जी इन इंडिया” के लेखक, एम. वी. रमणा ने आईडीएन को बताया कि प्रथम चरण, अर्थात् वह अवधि जब जवाहरलाल नेहरु प्रधानमंत्री थे (1947-64), के दौरान परमाणु निशस्त्रीकरण के प्रति भारत की प्रतिबद्धता सर्वाधिक दृढ थी।

उन्होंने बताया कि, नेहरु “वास्तव में वैश्विक परमाणु निशस्त्रीकरण को आगे बढ़ाने के लिए जो कुछ भी कर सकते थे उसे करने में रूचि रखते थे” और उन्होंने ऐसे कदम उठाने हेतु योगदान दिया जिनका “परमाणु निशस्त्रीकरण के संबंध में दीर्घकालीन महत्त्व हो सकता था।“ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की, नेहरु के नेतृत्व के अंतर्गत भारत ने परमाणु हथियार विकसित करने से दूरी बनाए रखी।

रमणा कहते हैं कि, दूसरे चरण (1964-74) के दौरान इस स्तिथि में बदलाव आया। वर्ष 1962 में चीन के साथ सीमा युद्ध में अपनी पराजय और वर्ष 1964 में लोप नोर में चीन के द्वारा किए गए परमाणु परीक्षण के बाद, भारत ने परमाणु हथियार विकसित करने शुरू कर दिए और वर्ष 1974 में ‘शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट’ किया। इसके साथ-साथ, भारत ने इसी अवधी में वैश्विक परमाणु निशस्त्रीकरण हेतु आवाज़ बुलंद की किन्तु ये “कमज़ोर प्रयास” थे “जिनसे कुछ अधिक प्राप्त नही हुआ”।

रमणा स्पष्ट करते हैं कि, भारत की निशस्त्रीकरण की नीति के तीसरे चरण (1974-1998) का आरंभ और अंत पोखरण के परमाणु परीक्षणों से हुआ। भारत के परमाणु हथियारों का कार्यक्रम अब “धीरे-धीरे विकसित हो रहा था”, मुख्यतया पृथ्वी और अग्नि मिसाइलों का विकास। किन्तु “इसके परमाणु हथियारों के कार्यक्रम के मार्ग में स्वयं द्वारा आरोपित बाध्यताएं थीं”।

इसके साथ-साथ, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र और उत्तराधिकारी, राजीव गांधी, ने वैश्विक परमाणु निशस्त्रीकरण के लिए काम किया। वर्ष 1988 में संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में दिए भाषण में, राजीव गांधी ने ‘एक परमाणु-हथियारों से मुक्त और अहिंसक विश्व व्यवस्था को प्राप्त करने के लिए एक समयबद्ध कार्य-योजना’ का प्रस्ताव पेश किया।

रमणा कहते हैं कि, प्रथम तीन चरणों से भिन्न, वर्ष 1998 में शुरू हुए भारत की परमाणु निशस्त्रीकरण नीति के चौथे चरण मे, भारत ने “परमाणु निशस्त्रीकरण हेतु कोई बड़ा प्रयास नही किया”। सबसे महत्वपूर्ण, भारत ने उन संधियों का समर्थन नही किया जो उसके अपने हथियारों के कार्यक्रम पर रोक लगाती हों।

उदहारण के लिए, भारत ने जुलाई 2017 में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा अपनाई गई ऐतिहासिक परमाणु हथियार निषेध संधि के लिए हुई बातचीत से दूरी बनाए रखी

रमणा तर्क प्रस्तुत करते हैं कि, “निशस्त्रीकरण के लिए हुआ यह लघु वार्तालाप ज्यादातर एक पाखंड है”, क्योंकि इसके साथ-साथ हथियारों के जखीरों में वृद्धि हो रही थी।

नई दिल्ली स्तिथ सेंटर फॉर एयर पॉवर स्टडीज़ (सीएपीएस या केप्स) में राष्ट्रीय सुरक्षा परियोजना की वरिष्ठ सदस्या एवं अध्यक्षा, मनप्रीत सेठी, इससे असहमति व्यक्त करती हैं। उन्होंने आईडीएन को बताया कि निशस्त्रीकरण हेतु भारत की अभिलाषा “कोई ढोंग नही है”।

सेठी कहती हैं कि, “निशस्त्रीकरण हेतु भारत की प्रतिबद्धता और विश्वसनीय निवारण हेतु इसके प्रयास, जिसमे अग्नि-5 को क्रियाशील बनाना शामिल है, इसकी सुरक्षा संबंधी अनिवार्यता के दो अंग हैं”।

वे स्पष्ट करती हैं कि, “परमाणु हथियार संपन्न पडौस” के होते हुए, वर्त्तमान संदर्भ में भारत परमाणु हथियारों का त्याग नही कर सकता है। इसके परिणामस्वरुप, अल्पकाल के लिए भारत के पास परमाणु हथियारों का होना आवश्यक है किन्तु दीर्घकाल के लिए, यह मानता है की एक परमाणु हथियार मुक्त विश्व इसकी सुरक्षा के लिए सबसे बेहतर होगा। दोनों के बीच कोई भेद नही है।

सेठी के अनुसार, जबतक की विश्व बहुपक्षीय बातचीत के द्वारा, किसी सार्वभौमिक और सत्यापन योग्य निशस्त्रीकरण के समझोते पर नही पहुँच जाता है, तबतक भारत द्वारा निवारण की खोज सुरक्षा हासिल करने का एक विवेकपूर्ण तरीका है – विशेषतया तब जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद के पाँच स्थाई सदस्यों (ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन और अमेरिका) की कूटनीतियों में परमाणु हथियारों के महत्व में अत्यधिक वृद्धि हुई है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा ज़ारी ‘न्यूक्लीअर पोस्चर रिव्यू’ से प्रकट होता है की अमेरिका, “अत्यंत गंभीर परिस्थितियों” के प्रति प्रतिक्रिया सहित, परमाणु हथियारों का प्रयोग करने और यहाँ तक की आधारभूत ढांचों एवं नागरिकों पर गैर-परमाणु हमला करने के लिए पहले से कहीं अधिक इच्छुक है।

रमणा कहते हैं कि, इससे “भारत और चीन जैसे देशों को एक गलत संकेत” प्राप्त हुआ है। यदि एक अमेरिका जैसा देश जिसके पास गैर-परमाणु हथियारों का एक अत्यधिक विशाल जखीरा है, उसे और अधिक उपयोग योग्य परमाणु हथियारों के निर्माण हेतु निवेश करना पड़ता है, तो इसके कारण भारत और चीन में बैठे सैन्य योजना-निर्माताओं का भी इसी तरह के विचारों की ओर और अधिक झुकाव होगा।

भारत में, परमाणु मुखास्त्रों और हथियारों को लाने-ले जाने की व्यवस्था का आधुनिकीकरण करने की मांग तेजी से बढ़ रही है।

ऐसे संकेत भी अधिक प्राप्त हो रहे हैं की भारत लंबे समय से कायम ‘पहले प्रयोग नही करने’ की अपनी नीति का त्याग कर सकता है। इससे भारत पाकिस्तान के द्वारा अपने विरुद्ध परमाणु हथियारों का प्रयोग किए जाने से पहले परमाणु हथियारों का प्रयोग करने के प्रति और अधिक इच्छुक हो सकता है, ताकि उसे पूर्णतया निशस्त्र करके यह सुनिश्चित कर दे की भारतीय शहरों पर पाकिस्तानी परमाणु हथियारों का हमला होने का कोई खतरा नही रहे। [आईडीएन-InDepthsNews – 06 मार्च 2018]

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