संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट द्वारा परमाणु विस्फोटों के प्रति अनुक्रिया में मानवतावादी निगरानी को त्रुटिपूर्ण पाया गया
जमशेद बरूआ द्वारा
बर्लिन (आईडीएन) – हिरोशिमा और नागासाकी की परमाणु बमबारी के लगभग 70 वर्षों बाद भी लगभग 22,000 परमाणु हथियारों द्वारा मानवता की उत्तरजीविता के लिए खतरा बना हुआ है, और युनाइटेड स्टेट्स ऑफिस फॉर डिसआर्मामेंट अफेयर्स (यूनोदा) के अनुसार, आज की तारीख तक 2,000 से अधिक परमाणु परीक्षाएं की गई हैं। लेकिन विश्व समुदाय परमाणु हथियारों के विस्फोटों के प्रति “बड़े स्तर पर परमाणु युद्ध की तो बात ही छोड़ दें, तैयारी के मूल स्तरों पर भी,” प्रभावशाली ढंग से अनुक्रिया करने के लिए तैयार नहीं है। PDF
यह चिंताजनक विचार 26 सितंबर को परमाणु हथियारों के समूचे उन्मूलन के लिए प्रथम अंतरराष्ट्रीय दिवस से पहले यूएन इंस्टीट्यूट फॉर डिसआर्मामेंट रिसर्च (युनिडिर) द्वारा ओचा (ऑफिस फॉर द कोऑर्डिनेशन ऑफ ह्युमैनिटेरियन अफेयर्स) और यूएनडीपी (यूएन डेवलपमेंट प्रोग्राम) के साथ सहयोग में संचालित एक अध्ययन में व्यक्त किया गया है।
यह अध्ययन कहता है: “विभिन्न एजेंसियों में संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवतावादी कर्मचारियों के साथ हमारे साक्षात्कारों के आधार पर, सुने गए सबूतों से संकेत मिलता है कि आबादीयुक्त इलाकों में परमाणु विस्फोट उनमें से कई लोगों को आश्चर्यचकित कर देंगे – कुछ लोग मानते हैं कि ‘निचले छोर’की परमाणु विस्फोट घटनाओं के लिए योजनाएं मौजूद हैं, जिसमें, माना जाता है कि आईएईए (इंटरनेशनल अटॉमिक एनर्जी एजेंसी) की विशेषज्ञता, उपकरण, और प्रचालनीय क्षमता प्रदान करने में नेतृत्व की भूमिका है।”
यूनिडिर विशेषज्ञों जॉन बोर्री और टिम काफली द्वारा किया गया यह अध्ययन,‘सुरक्षा की भ्रांति: संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवतावादी समन्वय और अनुक्रिया के लिए परमाणु हथियारों के विस्फोटों की चुनौतियाँ’मार्च 2013 में ओस्लो, नॉर्वे में आयोजित परमाणु हथियारों के मानवतावादी प्रभाव पर प्रथम अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के निष्कर्ष की जाँच करता है, जिसमें कहा गया था: “यह संभावना नहीं है कि कोई राज्य या अंतरराष्ट्रीय संस्था परमाणु हथियारों के विस्फोट से उत्पन्न तत्काल मानवता संबंधी आपात् स्थिति को पर्याप्त ढंग से संबोधित करेगी और प्रभावित लोगों को पर्याप्त सहायता प्रदान करेगी। साथ ही, हो सकता है ऐसी क्षमताओं की स्थापना करना संभव न हो, चाहे उसका प्रयास क्यों न किया गया हो।”
परमाणु हथियार विस्फोट के परिदृश्य को चित्रित करते हुए, बोर्री और काफली कहते हैं: “ऐसे विस्फोट की घटना – एक या अधिक परमाणु हथियारों को छोड़ने से उत्पन्न विस्फोट, उष्णता संबंधी विकिरण, और तत्काल विकिरण – के तत्क्षण प्रभावों के कारण कई लोग हताहत होंगे और महत्वपूर्ण अवसंरचना काफी हद तक नष्ट हो जाएगी। इससे डर और विघ्न उत्पन्न हो जाएगा, जिसके कारण कई लोगों के बर्ताव के सामान्य प्रतिमानों में परिवर्तन हो जाएगा तथा अवरोध और भी बिगड़ जाएगा (उदाहरण के लिए, पहले से भरे हुए अस्पतालों में जाने के लिए अपने घरों से पलायन क्योंकि उन्हें विकिरण से दूषित होने का डर होगा)। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि, कोई भी अनुक्रिया परिभाषा के अनुसार अपर्याप्त होगी क्योंकि तत्काल नुकसान तो पहले ही हो चुकता है।”
अध्ययन के अनुसार, अधिकांश विशेषज्ञ इस बात पर सहमत लगते हैं कि परमाणु विस्फोट की घटना के पीड़ितों की तत्काल जरूरतों की जिम्मेदारी स्थानीय और राष्ट्रीय अधिकारियों पर उस हद तक होगी जिस हद तक वे तब भी काम कर रहे होंगे। “अत्यधिक आबादी वाले क्षेत्र में मानवता संबंधी जरूरत विशाल होगी, जिसमें गंभीर रूप से जले और जख्मी (उनमें से कई मरते हुए) लोग शामिल होंगे। इस क्षेत्र में अधिकतर विशेषज्ञ साहित्य की मान्यता है कि मदद आने में कई दिनों का या उससे भी अधिक समय लगेगा – अंतरराष्ट्रीय सहायता की बात तो छोड़ ही दें।”
मानवता संबंधी प्रणाली के लिए चुनौतियाँ
रिपोर्ट यह बात स्पष्ट करती है कि हालांकि अभी हाल के दिनों में विकिरण संबंधी “गंदे बमों” या रासायनिक हथियारों के उपयोग जैसे परिदृश्यों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय चर्चाएं हुई हैं, तथापि अत्यधिक आबादी वाले इलाकों में परमाणु हथियारों के विस्फोटों के पीड़ितों की सहायता की मानवता संबंधी प्रणाली के लिए चुनौतियों को समझने के लिए कोई समतुल्य कोशिशें नहीं की गई हैं।
इसके अलावा, परमाणु हथियार विस्फोट-विशिष्ट घटनाओं के प्रति अनुक्रिया के लिए व्यवस्थित नियोजन के लिए मानवता संबंधी प्रणाली के भीतर कोई केंद्र बिंदु नहीं है। साथ ही, ऐसा प्रतीत होता है कि परमाणु हथियार के विस्फोटों की घटना होने पर मानवता संबंधी प्रचालनों के समर्थन में मैदानी स्तर पर विकिरण की निगरानी और विकिरण के परिशोधन जैसी विशेषज्ञ स्थायी जिम्मेदारियाँ अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों या मानवतावादी सहयोगियों को स्पष्ट रूप से आबंटित नहीं की गई हैं।
अध्ययन का एक मुख्य निष्कर्ष यह है कि कुछ विशेषज्ञता प्राप्त एजेसियाँ मानती हैं कि उनकी आबंटित जिम्मेदारियाँ नागरिक विकिरण संबंधी आपात् स्थितियों पर तो लागू हैं किंतु परमाणु हथियारों के उपयोग के मामलों पर नहीं, या वे कतिपय प्रकार के परमाणु हथियार विस्फोट परिदृश्यों पर (उदा., आतंकवाद) तो लागू हैं किंतु अन्यों पर नहीं (उदा., सरकारी उपयोग, परमाणु हथियार दुर्घटनाएं)।
रिपोर्ट के लेखक आगे कहते हैं कि परमाणु हथियार विस्फोट की घटना के विशिष्ट मामले में संयुक्त राष्ट्र की मानवतावादी प्रणाली और संबद्ध राष्ट्रीय अधिकारियों के बीच समन्वय के लिए स्थायी व्यवस्थाओं का अस्तित्व प्रतीत नहीं होता है, हालांकि ऑपरेशनल प्रीपेयर्डनेस ग्रुप ऑन सीबीआरएन (केमिकल, बायोलॉजीकल, रेडियोलॉजीकल और न्यूक्लियर) डिफेंस जैसी संस्थाओं का गठन प्रोत्साहित करने वाली घटनाएं हैं।
अध्ययन चेतावनी देता है,“जब कि हमें कोई संदेह नहीं है कि मानवतावादी प्रणाली जितनी तेजी से संभव होगा उतनी शीघ्रता से कार्रवाई करेगी, संकट की गर्मी में इन व्यवस्थाओं का विकास उचित नहीं होगा, और इसमें समय लगेगा – जिससे उत्पन्न असमंजसता या कुव्याख्या के कारण सबसे सामयिक और प्रभावशाली अनुक्रिया में अवरोध होने की संभावना हो सकती है।”
अध्ययन का एक और निष्कर्ष यह है कि और भी अधिक परमाणु हथियारों के विस्फोटों का खतरा या डर मानवतावादी समन्वय और अनुक्रिया की प्रकृति और परिमाण के बारे में निर्णय लेने को अत्यधिक जटिल बना देगा, उसे प्रदान करने की बात तो छोड़ ही दें।
“हो सकता है किसी परमाणु हथियार के विस्फोट के बाद के घंटों, दिनों, या यहाँ तक कि हफ्तों में भी, उसके मूल, या उसके लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान का पता नहीं चल सकेगा। ऐसी अनिश्चितता अपने स्वयं के परमाणु संकटों का सृजन कर सकती है।
“साथ ही, हो सकता है कि जोखिम के आंकलन के संदर्भ में, मानवतावादी अभिनेता (संबद्ध संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों सहित) यह महसूस कर सकते हैं कि प्रभावित लोगों को मानवतावादी राहत पहुँचाना अत्यधिक खतरनाक हो सकता है। हो सकता है, प्रभावित राज्य स्वयं, वातावरण के पर्याप्त रूप से ‘निरापद’ न होने तक, राहत को स्वीकार करने के लिए तैयार न हों। मानवतावादी प्रणाली द्वारा समन्वयित सहायता प्रदान करने की स्थिति में होने वाले राज्य ऐसा करने के लिए तैयार नहीं भी हो सकते हैं, यदि उन्हें डर हो कि और भी परमाणु हथियार विस्फोटों की घटनाएं संभव हैं। इससे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित या विस्थापित लोगों की तकलीफें और भी बढ़ सकती हैं,” यह बात अध्ययन ने नोट की है। [आईडीएन- इनडेप्थन्यूज़ – 23 अगस्त 2014]